पुस्तक के संदर्भ में
प्रस्तुत पुस्तक बनारसी ठुमरी की परम्परा में ठुमरी गायिकाओं की चुनौतियाँ एवं उपलब्धियाँ: 19वीं और 20वीं सदी की ठुमरी-दादरा गायिकाओं की चुनौतियों एवं उपलब्धियों, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक सरोकारों की प्रस्तुति करता है।बनारसी ठुमरी को लोकप्रिय बनाने तथा प्रचारित-प्रसारित करने में तत्कालीन ठुमरी गायिकाओं का अहम योगदान रहा है। अवध के दरबार से निकली ठुमरी जब बनारस में आई तो संगीतजीवी गायिकाओं ने उसे अपनाया तथा स्थानीय धुनों, शैलियों से सजाकर ठुमरी को एक कलागत वैशिष्ट्य प्रदान किया। हुस्ना बाई, विद्याधरी बाई, गौहर जान, रसूलन बाई, बड़ी मोती बाई, जद्दन बाई, अख्तरी बाई और सिद्धेश्वरी बाई सरीखी गायिकाओं के संगीतिक योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता।
मूलतः नृत्य से जुड़ी यह विधा वर्तमान में गेय विधा के रूप प्रतिष्ठित है, जिसका श्रेय इन गायिकाओं को है | जमींदारी प्रथा का अंत, कोठों का उन्मूलन तथा ब्रिटिश गवर्नमेंट की नीतियों ने उन्हें सामाजिक, आर्थिक रूप से तो प्रभावित किया ही मानसिक रूप से भी गहरी वेदना उन्हें मिली। 1856 में वाज़िद अली शाह को मटिया बुर्ज भेजा गया था। उस समय से करीब स्वतंत्रता प्राप्ति तक इन गायिकाओं ने न केवल संगीत को संरक्षित किया बल्कि अन्य संगीत सेवी वर्गों की जीविका का माध्यम भी बनीं। नये तकनीकी माध्यमों से उन्होंने स्वयं को जोड़कर स्थापित किया। चाहे ग्रामोफोन हो, रंगमंच हो, रेडियो हो या सिनेमा। अपनी सहभागिता हर क्षेत्र में बनाए रखी। सौ साल का सफर न केवल संगीत के दृष्टिकोण से बल्कि स्त्री विकास के सफर को दर्शाता है। अख्तरी बाई से बेगम अख्तर तथा सिद्धेश्वरी बाई से सिद्धेश्वरी देवी तक का सफर केवल नाम को ही नहीं बल्कि पूरे स्त्री अस्तित्व के सफ़र को रेखांकित करता है।हमें इस बात को सदैव स्मरण रखना चाहिए कि आज जो भी संगीत हमारे पास है उसमें उपशास्त्रीय संगीत की विधाओं तथा उनसे जुड़े रागों, तालों, सांगीतिक विशेषताओं को सुरक्षित, संरक्षित रखने का आधिकार इन गायिकाओं की सुदीर्घ साधना, प्रस्तुति एवं उपादेयता का परिणाम है। इन गायिकाओं ने अपनी तमाम व्यक्तिगत व सामाजिक समस्याओं से जूझते हुए न केवल संगीत की साधना जारी रखी बल्कि बहुत से लोगों के जीविकोपार्जन का माध्यम भी बनी। गरीबी व सामाजिक वर्जनाओं, विषमताओं से प्रताड़ित होने के बावजूद भी अपनी कला के प्रति समर्पित रहीं और उनके इस समर्पण भाव ने संगीत को जीवित रखा। उनके अवदान को सामने लाना और लोक से परिचित कराना उनके प्रति सहानुभूति नहीं श्रद्धांजलि होगी।
लेखक परिचय
डॉ. ज्योति सिन्हा
अध्येता, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला (2015-17)
शिक्षा: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से संगीत में पीएचडी तथा ललित
नारायण मिथिला विश्वविद्यालय दरभंगा, बिहार से डी लिट ।
प्रकाशित प्रमुख कृतियाँ: संगीत सारांश 1,2; स्वातंत्र्योत्तर समाज में संगीत सेवियों की स्थिति; नई सदी के नए सरोकार; भोजपुरी लोकगीतों के विविध आयाम; राग, रोग व रोगी....संगीत चिकित्सा; संगीत प्रवाह ।
100 से अधिक शोधपत्रों का राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन ।
सहभागिता: अनेक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में सहभागिता । आकाशवाणी व दूरदर्शन की कलाकार।
पुस्तक के संदर्भ में प्रस्तुत पुस्तक बनारसी ठुमरी की परम्परा में ठुमरी गायिकाओं की चुनौतियाँ एवं उपलब्धियाँ: 19वीं और 20वीं सदी की ठुमरी-दादरा गायिकाओं की चुनौतियों एवं उपलब्धियों, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक सरोकारों की प्रस्तुति करता है।बनारसी ठुमरी को लोकप्रिय बनाने तथा प्रचारित-प्रसारित करने में तत्कालीन ठुमरी गायिकाओं का अहम योगदान रहा है। अवध के दरबार से निकली ठुमरी जब बनारस में आई तो संगीतजीवी गायिकाओं ने उसे अपनाया तथा स्थानीय धुनों, शैलियों से सजाकर ठुमरी को एक कलागत वैशिष्ट्य प्रदान किया। हुस्ना बाई, विद्याधरी बाई, गौहर जान, रसूलन बाई, बड़ी मोती बाई, जद्दन बाई, अख्तरी बाई और सिद्धेश्वरी बाई सरीखी गायिकाओं के संगीतिक योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता।मूलतः नृत्य से जुड़ी यह विधा वर्तमान में गेय विधा के रूप प्रतिष्ठित है, जिसका श्रेय इन गायिकाओं को है | जमींदारी प्रथा का अंत, कोठों का उन्मूलन तथा ब्रिटिश गवर्नमेंट की नीतियों ने उन्हें सामाजिक, आर्थिक रूप से तो प्रभावित किया ही मानसिक रूप से भी गहरी वेदना उन्हें मिली। 1856 में वाज़िद अली शाह को मटिया बुर्ज भेजा गया था। उस समय से करीब स्वतंत्रता प्राप्ति तक इन गायिकाओं ने न केवल संगीत को संरक्षित किया बल्कि अन्य संगीत सेवी वर्गों की जीविका का माध्यम भी बनीं। नये तकनीकी माध्यमों से उन्होंने स्वयं को जोड़कर स्थापित किया। चाहे ग्रामोफोन हो, रंगमंच हो, रेडियो हो या सिनेमा। अपनी सहभागिता हर क्षेत्र में बनाए रखी। सौ साल का सफर न केवल संगीत के दृष्टिकोण से बल्कि स्त्री विकास के सफर को दर्शाता है। अख्तरी बाई से बेगम अख्तर तथा सिद्धेश्वरी बाई से सिद्धेश्वरी देवी तक का सफर केवल नाम को ही नहीं बल्कि पूरे स्त्री अस्तित्व के सफ़र को रेखांकित करता है।हमें इस बात को सदैव स्मरण रखना चाहिए कि आज जो भी संगीत हमारे पास है उसमें उपशास्त्रीय संगीत की विधाओं तथा उनसे जुड़े रागों, तालों, सांगीतिक विशेषताओं को सुरक्षित, संरक्षित रखने का आधिकार इन गायिकाओं की सुदीर्घ साधना, प्रस्तुति एवं उपादेयता का परिणाम है। इन गायिकाओं ने अपनी तमाम व्यक्तिगत व सामाजिक समस्याओं से जूझते हुए न केवल संगीत की साधना जारी रखी बल्कि बहुत से लोगों के जीविकोपार्जन का माध्यम भी बनी। गरीबी व सामाजिक वर्जनाओं, विषमताओं से प्रताड़ित होने के बावजूद भी अपनी कला के प्रति समर्पित रहीं और उनके इस समर्पण भाव ने संगीत को जीवित रखा। उनके अवदान को सामने लाना और लोक से परिचित कराना उनके प्रति सहानुभूति नहीं श्रद्धांजलि होगी। लेखक परिचय डॉ. ज्योति सिन्हा अध्येता, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला (2015-17) शिक्षा: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से संगीत में पीएचडी तथा ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय दरभंगा, बिहार से डी लिट । प्रकाशित प्रमुख कृतियाँ: संगीत सारांश 1,2; स्वातंत्र्योत्तर समाज में संगीत सेवियों की स्थिति; नई सदी के नए सरोकार; भोजपुरी लोकगीतों के विविध आयाम; राग, रोग व रोगी....संगीत चिकित्सा; संगीत प्रवाह । 100 से अधिक शोधपत्रों का राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन । सहभागिता: अनेक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में सहभागिता । आकाशवाणी व दूरदर्शन की कलाकार।