आपके हाथ में ‘दलित विमर्श-संदर्भ गाँधी’ का संशोधित और परिमार्जित दूसरा संस्करण ‘दलित विमर्श-संदर्भ गाँधी, अंबेदकर’ नाम से प्रस्तुत है। दरअसल गाँधी और अंबेदकर दोनों ही दलित समस्या से गहराई से जुड़े थे। भले ही व्यक्तिगत कारणों से विषय की पकड़ में अंतर हो पर उनका ध्यये एक ही था। ‘ओका’ उनके बाल सखा ने इस समस्या से उनको बालपन से ही भावनात्मक स्तर पर जोड़ दिया था। ‘ओका’ के संदर्भ मे वे अपनी ममतामयी माँ से भी भिन्नता रखते थे। गाँधी ने इस विमर्श को बहुत पहले अपने चिंतन और कार्यकर्म का हिस्सा बना लिया था। अंबेडकर जी जब आए तो उन्होंने इसे चुनौती के रूप में लिया। अपने वर्ग को अपने लेखों से, भाषणों के माध्यम से जाग्रत किया। गाँधी सवर्णों को इस अमानवीय छुआछूत के व्यवहार का अहसास कराने में और दलितों के काम जुट गए। सवर्णों ने उनका जमकर विरोध किया और गाहे ब गाहे आक्रमण भी किए। अंबेदकर जी और गाँधी जी में भेदभाव भले ही रहा हो पर मन- भेद नहीं था। जहाँ मतभेद हुए उन्होंने सुलझा लिए। गाँधी हर स्थिति से सीखते थे, स्वाभावतः उन्होंने डा. अंबेदकर से भी सीखा। हालाँकि उनका दलित न होना आज भी उनके विरुद्ध पढ़ा जाता है। लेकिन उनकी इस प्रतिबद्धता ने पग-पग पर होने वाले प्रत्याशित-अप्रत्याशित अपमान को सहर्ष स्वीकार किया।
गिरिराज किशोर मूलतः उपन्यासकार हैं। उनका परिशिष्ट उपन्यास भी बड़े संस्थानों में होने वाली दलित-समस्याओं पर आधारित है। उनके द्वारा लिखे गए लोग, जुगलबंदी, ढाई घर, चिड़ियाघर, दो उपन्यास भी हाशिएगामी वर्गों से संबंधित हैं। गाँधी पर भी उनका काम पहला गिरमिटिया, दलित विमर्श-संदर्भ गाँधी, अंबेदकर (आई आई ए एस, शिमला से प्रकाशित), हिन्द स्वराज-गाँधी का शब्दावतार, और बा(कस्तूरबा पर आधारित) रचनाएं हैं। एक नाटक गाँधी को फाँसी दो है। कहानियों के भी कई संग्रह है। उन्होंने अपना जीवन साहित्य को समर्पित किया है और साहित्य के माध्यम से गाँधी से जुड़े। हमें भारत को जानना है तो गाँधी को भी जानना होगा।.
आपके हाथ में ‘दलित विमर्श-संदर्भ गाँधी’ का संशोधित और परिमार्जित दूसरा संस्करण ‘दलित विमर्श-संदर्भ गाँधी, अंबेदकर’ नाम से प्रस्तुत है। दरअसल गाँधी और अंबेदकर दोनों ही दलित समस्या से गहराई से जुड़े थे। भले ही व्यक्तिगत कारणों से विषय की पकड़ में अंतर हो पर उनका ध्यये एक ही था। ‘ओका’ उनके बाल सखा ने इस समस्या से उनको बालपन से ही भावनात्मक स्तर पर जोड़ दिया था। ‘ओका’ के संदर्भ मे वे अपनी ममतामयी माँ से भी भिन्नता रखते थे। गाँधी ने इस विमर्श को बहुत पहले अपने चिंतन और कार्यकर्म का हिस्सा बना लिया था। अंबेडकर जी जब आए तो उन्होंने इसे चुनौती के रूप में लिया। अपने वर्ग को अपने लेखों से, भाषणों के माध्यम से जाग्रत किया। गाँधी सवर्णों को इस अमानवीय छुआछूत के व्यवहार का अहसास कराने में और दलितों के काम जुट गए। सवर्णों ने उनका जमकर विरोध किया और गाहे ब गाहे आक्रमण भी किए। अंबेदकर जी और गाँधी जी में भेदभाव भले ही रहा हो पर मन- भेद नहीं था। जहाँ मतभेद हुए उन्होंने सुलझा लिए। गाँधी हर स्थिति से सीखते थे, स्वाभावतः उन्होंने डा. अंबेदकर से भी सीखा। हालाँकि उनका दलित न होना आज भी उनके विरुद्ध पढ़ा जाता है। लेकिन उनकी इस प्रतिबद्धता ने पग-पग पर होने वाले प्रत्याशित-अप्रत्याशित अपमान को सहर्ष स्वीकार किया। गिरिराज किशोर मूलतः उपन्यासकार हैं। उनका परिशिष्ट उपन्यास भी बड़े संस्थानों में होने वाली दलित-समस्याओं पर आधारित है। उनके द्वारा लिखे गए लोग, जुगलबंदी, ढाई घर, चिड़ियाघर, दो उपन्यास भी हाशिएगामी वर्गों से संबंधित हैं। गाँधी पर भी उनका काम पहला गिरमिटिया, दलित विमर्श-संदर्भ गाँधी, अंबेदकर (आई आई ए एस, शिमला से प्रकाशित), हिन्द स्वराज-गाँधी का शब्दावतार, और बा(कस्तूरबा पर आधारित) रचनाएं हैं। एक नाटक गाँधी को फाँसी दो है। कहानियों के भी कई संग्रह है। उन्होंने अपना जीवन साहित्य को समर्पित किया है और साहित्य के माध्यम से गाँधी से जुड़े। हमें भारत को जानना है तो गाँधी को भी जानना होगा।.