पद्मिनी: इतिहास और कथा-काव्य की जुगलबंदी । माधव हाड़ा
पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण सदियों से लोक स्मृति में ‘मान्य सत्य’ की तरह रहा है। सोलहवीं से उन्नीसवीं सदी तकइस प्रकरण पर देश भाषाओं में निरंतर कथा-काव्य रचनाएँ होती रही हैं और ये अपने चरित्र और प्रकृति में परंपरा से कथा-आख्यान के साथ कुछ हद तक ‘इतिहास’ भी हैं। अज्ञात कविकृत ‘गोरा-बादल कवित्त’ (1588 ई. से पूर्व), हेमरतनकृत ‘गोरा-बादल पदमिणी चउपई’ (1588 ई.), अज्ञात कविकृत ‘पद्मिनीसमिओ’ (1616 ई.), जटमल नाहरकृत’ गोरा-बादल कथा’ (1623 ई.), लब्धोदय कृत ‘पद्मिनी चरित्र चौपई’ (1649 ई.), दयालदासकृत ‘राणारासो’ (1668-1681 ई), दलपति विजयकृत ‘खुम्माणरासो’ (1715-1733 ई.)और अज्ञात रचनाकारकृत ‘चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा’ (प्रतिलिपि, 1870 ई.) इस परंपरा की अब तक उपलब्ध रचनाएँ हैं।पद्मिनी प्रकरण व्यापक चर्चा में तो रहा, लेकिन इसकी परख-पड़ताल में इस्लामी, फ़ारसी-अरबी स्रोतों की तुलना में इन रचनाओं का उपयोग नहीं के बराबर हुआ। अधिकांश आधुनिक इतिहासकारों ने इन देशज रचनाओं के बजाय अलाउद्दीन ख़लजी के समकालीन इस्लामी वृत्तांतों में अनुल्लेख के आधार पर देशज रचनाओं को मलिक मुहम्मद जायसी की ‘पद्मावत’ (1540 ई.) पर निर्भर मानते हुए इस प्रकरण और इन रचनाओं को कल्पित ठहरा दिया। प्रस्तुत विनिबंध इन रचनाओं को भारतीय ऐतिहासिक कथा काव्य की परंपरा के परिप्रेक्ष्य में रखकर इनके ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक महत्त्व पर विस्तार से विचार करता है। ख़ास बात यह है कि इस विचार में बतौर साक्ष्य रचनाओं का मूल और हिंदी कथा रूपांतरण भी दिया गया है। इतिहास और साहित्य के अध्येता के रूप में पद्मिनी की प्रसंग में रुचि रखने वाले विद्वानों और सामान्य पाठकों के लिए यह विनिबन्ध सूचना और शोध दृष्टि प्रदान के लिए न केवल उपयोगी, बल्कि नेत्रोन्मीलक है। लेखक ने विवादास्पद विषय पर सम्यक् अध्ययन प्रस्तुत कर अकादमिक के साथ,सामाजिक उपयोगिता की दृष्टि से भी, महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।
मीरां के जीवन और समाज पर एकाग्र अपनी पुस्तक ‘पचरंग चोला पहर सखी री’ (2015 ई.) और इसके अंग्रेज़ी अनुवाद ‘मीरां वर्सेज़ मीरां’ (2021 ई.) के लिए चर्चित माधव हाड़ा की दिलचस्पी का मुख्य क्षेत्र मध्यकालीन साहित्य और इतिहास है। ‘देहरी पर दीपक’ (2021),‘मुनि जिनविजय’ (2016), ‘सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया’ (2012), ‘मीडिया, साहित्य और संस्कृति’ (2006), ‘कविता का पूरा दृश्य’, (1992) और ‘तनी हुई रस्सी पर’(1987) उनकी मौलिक और ‘सौने काट न लागै’ (2021) ‘एक भव-अनेक नाम’ (2022), ‘सूरदास’, ‘तुलसीदास’, ‘अमीर ख़ुसरो’,‘मीरां’ (2021),‘मीरां रचना संचयन’ (2017), ‘कथेतर’ (2017) और ‘लय’ (1996) उनकी संपादित पुस्तकें हैं। पत्र-पत्रिकाओं में उनके शताधिक शोध निबंध, आलेख, विनिबंध, समीक्षाएँ आदि प्रकाशित हुए हैं। वे प्रकाशन विभाग, भारत सरकार के भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार (2012) एवं राजस्थान साहित्य अकादमी के देवराज उपाध्याय आलोचना पुरस्कार (1990) से पुरस्कृत हैं और साहित्य अकादेमी की साधारण परिषद् और हिंदी परामर्शदात्री समिति (2012-2017) के सदस्य रहे हैं। मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर के हिंदी विभाग के प्रोफ़ेसर पद से सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने संस्थान की दो वर्षीय (2018-2021 ई.) अध्येतावृत्ति के अंतर्गत यह विनिबंध प्रस्तुत किया।
Padmini: Entwining History and Poetic- fiction | Madhav Hada
The Padmini-Ratansen episode has remained in public memory for centuries as an 'accepted truth'. From the 16th to the 19th century, there have been continuous narrative-poetic compositions in the desh(vernacular) languages on this episode and to some extent, these compositions are 'history' and to an extent, they are the narratives in their very nature and appeal. In this tradition some of the significant works available to date are 'Gora-Badal Kavitta' (before 1588 AD) by an unknown poet, 'Gora-Badal Padmini Chupai' by Hemratan (1588 AD), 'Padminisamio' by an unknown poet (1616 AD), Jatmal Nahar’s 'Gora- Badal Katha' (1623 AD), Labdhodaya’s 'Padmini Charitra Chaupai' (1649AD), Dayaldas’ 'Ranaraso' (1668-1681 AD), Dalpati Vijay’s 'Khummanraso' (1715-1733 AD) and 'Chittor-Udaipur Patnama' (copy, 1870 AD) by the unknown composers. The Padmini episode remained the centre of a wide-ranging discourse, but in its investigation, the aforementioned compositions werecompletely neglected as compared to Islamic, Persian-Arabic historical sources. Most modern historians considered the episode as fictitious and these indigenous compositions were drawn from Malik Muhammad Jayasi's 'Padmavat' (1540 AD). They regarded the contemporary Islamic accounts of Allaudin Khilji to be more relevant and completely side-lined the indigenous sources. The present monograph discusses in detail the historical, cultural and literary magnitude of these compositions by preserving them from the perspective of the tradition of Indian historical narrative poetry. A unique feature of the present study is that besides including the texts from indigenous sources translations in Hindi have also been given.For scholars of history and literature, the present work furnishes useful information regarding the Padmini episode research vision but is also eye-opening. It is a ground-breaking academic research work from the point of view of social usefulness on the polemic subject.
Madhav Hada is literary critic and academic. He has written extensively on literature, media, culture and history. His recently published work Meera Vs Meera is English translation of hiswell-received Hindi book Pachrang Chola Paher Sakhi ri. The work is focused on the medieval Bhakti Poetess Meera Bai’s life and society. He recently edited a series entitled Kaljayi Kavi aur Unaki Kavita which include Kabir, Raidas, Meera, Tulsidas, Amir Khusao, Soordas, Bulleshaha & Guru Nanak. He had been fellow at Indian Institute of Advanced Study, Rashtrapati Niwas, Shimla. Monograph of his work has been recently published by the Institute in name of Padmini: Itihas aur Katha-Kavya ki Jugalabandi.
He also has written a book on a great scholar of Oriental Studies, Muni Jinvijay whichhas been published by Sahitya Akademi in its ‘Makers of Indian Literature’ series. He has compiled anthologies of Meera Bai’s poetry entitled Meera Rachana Sanchayan (2017) & analytical essays on non-fictional prose in Hindi, entitled Kathetar (2017) for Sahitya Akademi. His other major published works include Saune Kat na Lage (2022), Ek Bhav-Anek Nam (2022), Dehri par Deepak (2021), Seedhiyan Chadhata Media (2012), Media, Sahitya aur Sanskriti (2006), Kavita Ka Poora Drishya (1992), Tani Hui Rassi Par(1987). Besides this he has published more than 100 papers, monographs, reviews etc. in various journals of repute.
He is the recipient of Bihari Pursakar for the entitled Pacharng Chola pahar Skahi ri, Bharatendu Harishchandra Puraskar for Media Studies & Devraj Upadyayay Puraskar for literary criticism. He had been a member of General Council and Hindi Advisory Board of Sahitya Akademi. He has been associated with the Higher Education Service of the Government of Rajasthan for more than thirty years and had been Professor and Head, Department of Hindi, Mohanlal Sukhadia University, Udaipur.
पद्मिनी: इतिहास और कथा-काव्य की जुगलबंदी । माधव हाड़ा पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण सदियों से लोक स्मृति में ‘मान्य सत्य’ की तरह रहा है। सोलहवीं से उन्नीसवीं सदी तकइस प्रकरण पर देश भाषाओं में निरंतर कथा-काव्य रचनाएँ होती रही हैं और ये अपने चरित्र और प्रकृति में परंपरा से कथा-आख्यान के साथ कुछ हद तक ‘इतिहास’ भी हैं। अज्ञात कविकृत ‘गोरा-बादल कवित्त’ (1588 ई. से पूर्व), हेमरतनकृत ‘गोरा-बादल पदमिणी चउपई’ (1588 ई.), अज्ञात कविकृत ‘पद्मिनीसमिओ’ (1616 ई.), जटमल नाहरकृत’ गोरा-बादल कथा’ (1623 ई.), लब्धोदय कृत ‘पद्मिनी चरित्र चौपई’ (1649 ई.), दयालदासकृत ‘राणारासो’ (1668-1681 ई), दलपति विजयकृत ‘खुम्माणरासो’ (1715-1733 ई.)और अज्ञात रचनाकारकृत ‘चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा’ (प्रतिलिपि, 1870 ई.) इस परंपरा की अब तक उपलब्ध रचनाएँ हैं।पद्मिनी प्रकरण व्यापक चर्चा में तो रहा, लेकिन इसकी परख-पड़ताल में इस्लामी, फ़ारसी-अरबी स्रोतों की तुलना में इन रचनाओं का उपयोग नहीं के बराबर हुआ। अधिकांश आधुनिक इतिहासकारों ने इन देशज रचनाओं के बजाय अलाउद्दीन ख़लजी के समकालीन इस्लामी वृत्तांतों में अनुल्लेख के आधार पर देशज रचनाओं को मलिक मुहम्मद जायसी की ‘पद्मावत’ (1540 ई.) पर निर्भर मानते हुए इस प्रकरण और इन रचनाओं को कल्पित ठहरा दिया। प्रस्तुत विनिबंध इन रचनाओं को भारतीय ऐतिहासिक कथा काव्य की परंपरा के परिप्रेक्ष्य में रखकर इनके ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक महत्त्व पर विस्तार से विचार करता है। ख़ास बात यह है कि इस विचार में बतौर साक्ष्य रचनाओं का मूल और हिंदी कथा रूपांतरण भी दिया गया है। इतिहास और साहित्य के अध्येता के रूप में पद्मिनी की प्रसंग में रुचि रखने वाले विद्वानों और सामान्य पाठकों के लिए यह विनिबन्ध सूचना और शोध दृष्टि प्रदान के लिए न केवल उपयोगी, बल्कि नेत्रोन्मीलक है। लेखक ने विवादास्पद विषय पर सम्यक् अध्ययन प्रस्तुत कर अकादमिक के साथ,सामाजिक उपयोगिता की दृष्टि से भी, महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। मीरां के जीवन और समाज पर एकाग्र अपनी पुस्तक ‘पचरंग चोला पहर सखी री’ (2015 ई.) और इसके अंग्रेज़ी अनुवाद ‘मीरां वर्सेज़ मीरां’ (2021 ई.) के लिए चर्चित माधव हाड़ा की दिलचस्पी का मुख्य क्षेत्र मध्यकालीन साहित्य और इतिहास है। ‘देहरी पर दीपक’ (2021),‘मुनि जिनविजय’ (2016), ‘सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया’ (2012), ‘मीडिया, साहित्य और संस्कृति’ (2006), ‘कविता का पूरा दृश्य’, (1992) और ‘तनी हुई रस्सी पर’(1987) उनकी मौलिक और ‘सौने काट न लागै’ (2021) ‘एक भव-अनेक नाम’ (2022), ‘सूरदास’, ‘तुलसीदास’, ‘अमीर ख़ुसरो’,‘मीरां’ (2021),‘मीरां रचना संचयन’ (2017), ‘कथेतर’ (2017) और ‘लय’ (1996) उनकी संपादित पुस्तकें हैं। पत्र-पत्रिकाओं में उनके शताधिक शोध निबंध, आलेख, विनिबंध, समीक्षाएँ आदि प्रकाशित हुए हैं। वे प्रकाशन विभाग, भारत सरकार के भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार (2012) एवं राजस्थान साहित्य अकादमी के देवराज उपाध्याय आलोचना पुरस्कार (1990) से पुरस्कृत हैं और साहित्य अकादेमी की साधारण परिषद् और हिंदी परामर्शदात्री समिति (2012-2017) के सदस्य रहे हैं। मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर के हिंदी विभाग के प्रोफ़ेसर पद से सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने संस्थान की दो वर्षीय (2018-2021 ई.) अध्येतावृत्ति के अंतर्गत यह विनिबंध प्रस्तुत किया। Padmini: Entwining History and Poetic- fiction | Madhav Hada The Padmini-Ratansen episode has remained in public memory for centuries as an 'accepted truth'. From the 16th to the 19th century, there have been continuous narrative-poetic compositions in the desh(vernacular) languages on this episode and to some extent, these compositions are 'history' and to an extent, they are the narratives in their very nature and appeal. In this tradition some of the significant works available to date are 'Gora-Badal Kavitta' (before 1588 AD) by an unknown poet, 'Gora-Badal Padmini Chupai' by Hemratan (1588 AD), 'Padminisamio' by an unknown poet (1616 AD), Jatmal Nahar’s 'Gora- Badal Katha' (1623 AD), Labdhodaya’s 'Padmini Charitra Chaupai' (1649AD), Dayaldas’ 'Ranaraso' (1668-1681 AD), Dalpati Vijay’s 'Khummanraso' (1715-1733 AD) and 'Chittor-Udaipur Patnama' (copy, 1870 AD) by the unknown composers. The Padmini episode remained the centre of a wide-ranging discourse, but in its investigation, the aforementioned compositions werecompletely neglected as compared to Islamic, Persian-Arabic historical sources. Most modern historians considered the episode as fictitious and these indigenous compositions were drawn from Malik Muhammad Jayasi's 'Padmavat' (1540 AD). They regarded the contemporary Islamic accounts of Allaudin Khilji to be more relevant and completely side-lined the indigenous sources. The present monograph discusses in detail the historical, cultural and literary magnitude of these compositions by preserving them from the perspective of the tradition of Indian historical narrative poetry. A unique feature of the present study is that besides including the texts from indigenous sources translations in Hindi have also been given.For scholars of history and literature, the present work furnishes useful information regarding the Padmini episode research vision but is also eye-opening. It is a ground-breaking academic research work from the point of view of social usefulness on the polemic subject. Madhav Hada is literary critic and academic. He has written extensively on literature, media, culture and history. His recently published work Meera Vs Meera is English translation of hiswell-received Hindi book Pachrang Chola Paher Sakhi ri. The work is focused on the medieval Bhakti Poetess Meera Bai’s life and society. He recently edited a series entitled Kaljayi Kavi aur Unaki Kavita which include Kabir, Raidas, Meera, Tulsidas, Amir Khusao, Soordas, Bulleshaha & Guru Nanak. He had been fellow at Indian Institute of Advanced Study, Rashtrapati Niwas, Shimla. Monograph of his work has been recently published by the Institute in name of Padmini: Itihas aur Katha-Kavya ki Jugalabandi. He also has written a book on a great scholar of Oriental Studies, Muni Jinvijay whichhas been published by Sahitya Akademi in its ‘Makers of Indian Literature’ series. He has compiled anthologies of Meera Bai’s poetry entitled Meera Rachana Sanchayan (2017) & analytical essays on non-fictional prose in Hindi, entitled Kathetar (2017) for Sahitya Akademi. His other major published works include Saune Kat na Lage (2022), Ek Bhav-Anek Nam (2022), Dehri par Deepak (2021), Seedhiyan Chadhata Media (2012), Media, Sahitya aur Sanskriti (2006), Kavita Ka Poora Drishya (1992), Tani Hui Rassi Par(1987). Besides this he has published more than 100 papers, monographs, reviews etc. in various journals of repute. He is the recipient of Bihari Pursakar for the entitled Pacharng Chola pahar Skahi ri, Bharatendu Harishchandra Puraskar for Media Studies & Devraj Upadyayay Puraskar for literary criticism. He had been a member of General Council and Hindi Advisory Board of Sahitya Akademi. He has been associated with the Higher Education Service of the Government of Rajasthan for more than thirty years and had been Professor and Head, Department of Hindi, Mohanlal Sukhadia University, Udaipur.